अभी तक हमने पांच तत्व, स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारन शरीर पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय, पांच कोष, मन और बुद्धि का अध्ययन किया। चेतना शक्ति की तीन अवस्थाओ जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ती की चर्चा की। ज्ञान मार्ग कठिन है, लेकिन प्रमाणिक है। गीताजी, रामायणजी, अष्टावक्र गीता, अवधूत गीता, योग बशिष्ठ आदि सभी ग्रंथो में इस मार्ग की विधिवत व्याख्या की गयी है।जहाँ हमारे इतने ग्रन्थ इस मार्ग की प्रमाणिकता सिद्ध करते हो, वहां शक के लिए कोई जगह नहीं है। फिर भी प्रमाणिक गुरु के सानिध्य की सख्त आवश्यकता होती है। ज्ञान के बिना भक्ति भी पाखण्ड बन के रह जाती है। और भक्ति के बिना ज्ञान भी अहंकार का प्रतीक बन कर रह जाता है। इस सदगुरू की शरण में रहकर ही साधना करना श्रेयस्कर माना गया है। भगवान् गीता जी में स्पष्ट कहते है की यदि किसी को इस मार्ग में श्रद्धा न हो तो उस'के सामने कभी भी इसकी चर्चा नहीं करनी चाहिए।
इदं ते नतापस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूश्वे वाच्यं न च माँ योभ्यसूयति।। 18-67
मै यह शरीर हूँ, यही अज्ञान है।हमारी जिंदगी बीत जाती है इस शरीर को ही अपना समझ कर इससे जुड़े रिश्तों को निभाने में। और एक दिन हम इस शरीर को ही यहॉ छोड़ कर कही और चले जाते है फिर अपने वास्तविक होने का ज्ञान तो होता है की मैं शरीर नहीं था, वल्कि ऐ शरीर मेरा था, तब तक सब कुछ हाँथ से निकल चूका होता है और जो शरीर हमें साधना कर के मुक्त होने के लिए मिला था वह भी पंचतत्व में विलीन हो चूका होता है। और हमें उस शरीर को पुनः पाने के लिए प्रकृती के द्वारा बनाए गए नियमो का पालन करना पड़ता है। और जन्म और मृत्यु की असहनीय पीड़ा से गुजरना पड़ता है। जो की अत्यंत दुखदाई है।
चूंकी सबसे बड़ा अज्ञान यह है की मै शरीर हूँ, तो अध्यात्म में इस शरीर को जानना अत्यंत जरुरी है। पिछले दो अंको में हमने जो चर्चा की है वो नीरस और जटिल है। लेकिन अत्यंत लाभदायी है। जब तक आप इसे नहीं जान लेंगे तब तक अध्यात्म के मार्ग पर चलना सहज नहीं होगा। इसको जाने बिना न तो आप आत्मा को जान पाएंगे, और न ही परमआत्मा को जान पाएंगे। और न ही भगवन से प्रीती होगी, न ही आप की मुक्ति होगी। रामायण जी कहती है- जाने बिनु होइ नहीं प्रीती।
भौतिक जगत में भी यह उतना ही सच्चा है जितना की लौकिक जगत में। जब आप की माँ ने आप के पिता से आप का परिचय दिया और आप ने पिता को जाना तो आप को पिता से प्रेम हो गया। ऐसे ही लौकिक जगत के पिता का ज्ञान जब सद्गुरु के माध्यम से मिलता है तब हमें उस परम पिता से भी प्रेम हो जाता है। यही से हमारी अध्यात्म की यात्रा शुरू होती है। इस लिए सर्व प्रथम स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर,कारण शरीर, कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेंद्रियो का ज्ञान होना अति आवश्यक है। अध्यात्म की ऐ प्रथम अवस्था होती है। विधिवत ज्ञान होने से मार्ग में कभी संशय नहीं होगा। अधकचरा ज्ञान किसी काम का नहीं होता। अध्यात्म की राह सब के लिए नहीं है, अतिशय कृपा पात्र साधक ही इस मार्ग पर चल पाते है। देंखे गीता जी का यह श्लोक-
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चि दत्तति सिद्धए, यत्तोमपि सिद्धानां कश्चिन्न मां वेति तत्वतः।।
अध्यात्म में सब की प्रीति नहीं होगी। लेकिन जिसकी हो जाये समझो वो परमात्मा का अतिशय कृपा पात्र है। विषय को अत्यधिक सहज करने का प्रयास होगा।
डॉ राकेश पाण्डेय
9926078000
Saturday, 24 June 2017
चेतना शक्ति की तीन अवस्थाएं।
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