Wednesday, 17 October 2018

साधक की अवस्था।

ईश्वर के प्रति जैसे-जैसे प्रेम बढ़ता जाता है कर्म का स्वयं प्यार हो जाता है l समाधि होने पर सभी कर्मों का त्याग हो जाता है lतीर्थ गले में माला आचरण यह सब शुरू शुरू में करने होते हैं lतत्व प्राप्ति होने पर भगवान के दर्शन होने पर बाहर के आडंबर धीरे धीरे कम हो जाते हैं lतब केवल ईश्वर का नाम लेकर रहना होता हैl और उनका स्मरण मनन स्वयं होता रहता हैl जिन्होंने ईश्वर दर्शन किया है उनके द्वारा फिर लड़के लड़कियों को जन्म देना सृष्टि का काम फिर नहीं होताl मुक्त भक्तों का मुख्य कर्तव्य है किसी प्रकार ईश्वर के साथ संबंध बनाकर रखना lइसके दो मार्ग है। कर्म योग और मनोयोग परमहंस की अवस्था में कर्म समाप्त हो जाता है स्मरण मन रह जाता है सर्वदा ही मन का योग रहता हैl यदि कर्म करता है, वह मात्र लोक शिक्षा के लिएl ईश्वर लाभ होने पर कर्म करनानहीं होता मन भी उसने नहीं लगता तब केवल उनके ही दर्शन और सेवा करने में आनंद मिलता है lपहले कार्य का बड़ा आडंबर होता है जितना ही ईश्वर की ओर आगे बढ़ो गे, उतना कर्म का आडंबर कम होता जाएगा यहां तक कि ईश्वर का नाम गुणगान तक बंद हो जाता हैl ब्राह्मण भोजन में पहले खूब शोरगुल होता है जितना पेट भरता जाता है उतना ही शोरगुल कम होता जाता हैl फिर केवल निद्रा समाधि lयदि ईश्वर के ऊपर प्रीति होती है तो यह होने पर होम योग यज्ञ पूजा इन सब कर्मों की अधिक आवश्यकता नहीं रहतीl जब तक हवा नहीं मिलती तब तक ही पंखे की जरूरत होती है यदि हवा स्वयं बहे पंखे की आवश्यकता नहीं होतीl

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